Wednesday, October 17, 2007

बचपनकी यादे

चालीसगाव नामका छोटासा शहर है जो महाराष्ट्र के जलगाव जिले में हैं. मैं वहीपर जन्मा, पढा लिखा, बडा हुवा. और आज भी वहींपर रहता हूं. १९५२ में मेरे पिताजी ने, जो कि पेशेसे वकील थे, यहांपर सिनेमा थिएटर शुरू किया. पहली फिल्म लगी थी 'गुळाचा गणपती'. यह फिल्म मराठीके बेजोड लेखक कै. पु.ल.देशपांडे द्वारा बनाई गई थी. लेखन, दिग्दर्शन, संगीत और अभिनय सब कुछ पु.ल. का था. वे मराठी के पी.जी.वुडहाउस माने जाने थे और बेहद लोकप्रिय रहे. आजतक वैसी लोकप्रियता कोई हासिल नही कर सका है. इस फिल्मका एक गीत ग.दि.माडगुळकरजीने लिखा था और पं. भीमसेन जोशी जी ने गाया था जो आजतक कमाल का लोकप्रिय है. शायद आपने भी सुना हो. 'इंद्रायणी काठी, देवाची आळंदी, लागली समाधी, ज्ञानेशाची.' 

मेरा जन्म १९५८ मे हुवा. उसके पहले अनारकली, नागिन आदि हिट फिल्मे हमारेही थिएटरमे प्रदर्शित हुई और रिरन होती गयी. मेरी मा जब उनकी यादे सुनाती थी तब हम बच्चे सुनते रह जाते थे. नागिन के 'मन डोले मेरा तन डोले' गीतमे जब बीन बजती थी तब लोग पागल हो जाते थे और परदेपर पैसे बरसाते थे. किसी मनोरुग्ण दर्शक के शरीरमें नागदेवता पधारते थे और वो नाग-साप की तरह जमीन पर लोटने लगता था. 

हमारा बचपन तो बस फिल्मे देखते देखते ही गुजरा. कोई भी फिल्म कमसे कम ३-४ हप्ते तो चलती ही थी. हमारी थिएटर के अलावा और २ थिएटर्स थी. हमारीवाली देखकर बोअर हो गये तो वहां चले गये. 

१९८६ मे आंतर धर्मीय विवाह करने के बाद मै परिवारसे अलग हो गया और थिएटरसे संबंध नही रहा. १९९९ मे पिताजी और छोटे भाईकी मृत्यू के बाद फिर थिएटरकी जिंम्मेदारी मुझपर आ गयी. लेकिन तबतक सिंगल स्क्रीन थिएटर्स मृत्यूशैया पर पहुंच चुके थे. स्टेट बॅंक की मेरी नोकरी छोडकर मैने थिएटर का बिजनेस चलानेकी कोशिश की. मगर बिजनेस डूबती नैय्या बन चुका था. सो गत वर्ष उसे हमेशा के लिये बंद कर दिया. 

ग.दि.माडगुळकर जी के बारेमें जी करता है आपको सामने बिठाउं और उनकी मराठी कविताओंका रसपान करवाउं. वे इन्स्टंट शायर थे. चुटकी बजाते ही गीत हाजिर कर देते थे. और वो भी कमाल की रचना. आज उनकी बस एकही बात कहुंगा. सी. रामचंद्र जी ने एक मराठी फिल्म बनाई थी. घरकुल. जो मॅन, वुमन ऍण्ड चाइल्ड पे आधारित थी. शेखर कपूर की मासूम भी उसीपर आधारित है. उसका संगीत भी उन्हीने दिया था. इस फिल्ममें माडगुळकरजी की एक कविता का इस्तमाल किया गया था. कविता का नाम था 'जोगिया' (ये हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक राग है) तवायफ की महफिल खत्म हो जाने के बाद जो माहोल बचता है उसका वर्णन किया गया है इस कविता में. प्रारंभ के बोल है 'कोन्यात झोपली सतार, सरला रंग...पसरली पैंजणे सैल टाकुनी अंग ॥ दुमडला गालिचा तक्के झुकले खाली...तबकात राहिले देठ, लवंगा, साली ॥ (ये गीत फैय्याज जी ने गाया है. फैय्याज उपशास्त्रीय संगीत गाती है और नाट्य कलाकार है.) शब्दोंका मतलब और कविताका भाव शायद आपकी समझ मे आ रहा होगा. ये गीत या ये पूरी कविता अगर मुझे मिली तो मै आपको जरूर सुनाउंगा और हिंदीमे मतलब समझाउंगा. कमाल का गाना है. सी.रामचंद्रजी ने कमाल का संगीत दिया है.

3 comments:

Yunus Khan said...

विकास भाई शानदार लिखा है ब्लोग शुरू करने के लिए बहोत बधाई

संजीव कुलकर्णी said...

वा,वा. जुन्या आठवणी ताज्या झाल्या. असेच लिहीत रहा.
सन्जोप राव

Anonymous said...

प्रिय भाई!

अपने संस्मरण लिखिए,विशेषकर नाटक-सिनेमा-काव्य-संगीत के सांस्कृतिक ऐश्वर्य से भरे अपने बचपन के संस्मरण . हम सबकी रुचि होगी . हमें प्रतीक्षा रहेगी .